Monday, August 3, 2009

हिंदू- मुस्लिम रिश्तों की महागाथा


Aug 02, 11:03 pm

दादू कहते थे एमजे अपने दादा को, जिनका नाम प्रयाग था। वह जन्म से हिंदू थे और उनका नाम पवित्र नदियों गंगा और यमुना के संगम के नाम पर रखा गया था। बक्सर की पैतृक जमीन पर 1870 में आए अकाल ने प्रयाग के माता-पिता को निगल लिया, तो अनाथ प्रयाग अपनी किस्मत की अनजानी मंजिल की तरफ निकल पड़ा। उसने अपने माता-पिता से बंगाल की जूट मिलों के बारे में सुन रखा था, सो एक गाड़ी के फर्श पर सोते हुए अपनी मंजिल यानी चंदरनागोर जाकर ही उतरा। लंबी यात्रा विक्टोरिया जूट मिल के पास जाकर खत्म हुई, जहां भूख-प्यास का मारा प्रयाग बेहोश होकर गिर पड़ा। उस वक्त गहन रात थी और किसे मालूम था कि वह प्रयाग की मंजिल नहीं, बल्कि एक नई जीवन-यात्रा की शुरुआत थी, जो न जाने नियति और इतिहास के किन-किन खूनी रास्तों से गुजरेगी।

..तो इस तरह शुरू होती है प्रख्यात पत्रकार एम जे अकबर की रोमांचकारी पारिवारिक गाथा 'खून के रिश्ते'। भूख-प्यास का मारा प्रयाग रात में जिस जगह जाकर बेहोश हुआ था, वह थी कलकत्ता से करीब तीस किलोमीटर दूर हुगली नदी के किनारे तेलिनीपारा, जहां विशाल विक्टोरिया जूट मिल खड़ी थी और स्काटिश उद्यमी नई जूट मिलें लगाने की तैयारी कर रहे थे। चाय की दुकान के मालिक वली मोहम्मद ने सुबह चार बजे जब अपनी चाय की दुकान के दरवाजे खोले, तो वहां बेहोश पड़े लड़के को उठाकर अंदर ले आए। उनको अकाल के मारों से सचमुच की हमदर्दी थी। उनकी पत्‍‌नी दिलजान बीबी ने उसे चावल-दाल खिलाए और प्रयाग को बर्तन धोने के काम पर लगा दिया। कुछ दिनों में प्रयाग ने वली और दिलजान का दिल जीत लिया। वे नि:संतान थे और धीरे-धीरे दिलजान जहीन लड़के को चाहने लगीं।

अब जरा नियति को देखिए। वली मोहम्मद बिहार से आए एक रिश्तेदार से मिलने गए और वहीं हैजे ने उनको निगल लिया। प्रयाग उनकी आखिरी इबादत के बाद वापस आया, तो दिलजान बीबी ने उससे एक बच्चा देने की फरमाइश की। वह मरने से पहले घर में किलकारी सुनना चाहती थीं। बाबी ने कहा, 'मेरे खूबसूरत नौजवान, मुझे तुम्हारी जात वाली कोई लड़की देखनी होगी।' प्रयाग ने कहा, 'अगर मैं किसी से शादी करूंगा, तो वह तुम्हारी जात वाली होगी, माई।' और इस तरह बक्सर के अकाल से भागकर तेलिनीपारा पहुंचा वह अनाथ लड़का प्रयाग से रहमतउल्लाह, यानी अल्लाह की रहमत, बन गया। दिलजान बीबी उसके लिए पत्‍‌नी पहले ही ढूंढ चुकी थीं, जो रिश्ते की उनकी बहन सायरा की बारह साल की सबसे बड़ी बेटी थी।

रहमतउल्लाह यानी दादू की व्यावसायिक बुद्धि काफी तेज थी। चाय की दुकान पर मजदूरों के खाने का इंतजाम किया और खाने की उधारी पर ब्याज लेने लगे, फिर बंगाली मिठाइयों की बिक्री शुरू की, सबसे पहले तेलिनीपारा में तंबाकू का कारोबार शुरू किया और अपनी उद्यमशीलता की सीढि़यां चढ़ते-चढ़ते इतनी दूर निकल गए कि सबसे पहले कार खरीदी, अपने बेटे अकबर को अंग्रेजी में शिक्षा दिलवाई और कंगाली में डूबे एक महान बंगाली बाबू सत्यजित बनर्जी को उस समय दस हजार रुपयों का कर्ज भी दे आए। ये उनकी व्यावसायिक बुद्धि का ही कमाल था कि दस हजार के कर्ज के बदले में उन्होंने ब्याज की कोई मांग नहीं की, बल्कि दो साल में कर्ज नहीं चुकाने पर बंगाली बाबू से तीन तालाबों वाले पुश्तैनी उद्यान-गृह के स्वामित्व का कागज ले आए।

लेकिन सिर्फ दादाजी के अमीर बनने भर की कहानी नहीं है। इसमें उस वक्त के इतिहास की कितनी ही धाराएं सामानांतर चलती हैं। चाहे वह जार्ज पंचम के दिल्ली आगमन पर तेलिनीपारा के अंग्रेज मिल मालिकों की ओर से मजदूरों को दिया भोज हो, जिमसें हिंदुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग तंबू लगाए गए थे, या फिर हिंदुओं-मुसलमानों के बीच बात-बात पर उमड़ पड़ने वाला सांप्रदायिक वैमनस्य। पूरी किताब में ऐसी अनगिनत कथाएं और उपकथाएं मौजूद हैं, जो समानांतर इतिहास को दर्ज करते हुए चलती हैं। अशिक्षा और अज्ञान भी किस तरह जानलेवा हो सकता है, इसका एक रोचक प्रकरण देखिए। तेलिनीपारा में हैजा फैलने के बाद एक आस्ट्रेलियाई वहां लोगों को टीका लगाने आया। लेकिन कुछ मुसलमानों ने यह अफवाह फैला दी कि टीके तीन तरह के होते हैं। एक वे, जो अंग्रेजों को हैजे से बचाते हैं, दूसरे वे, जो बंगालियों को लगाए जाते हैं, जिससे तेज बुखार आता है और तीसरे प्रकार के टीके खासतौर से मुसलमानों के लिए बने हैं, जिनके लगने के दो घंटे के भीतर वे मर जाते हैं। कोई मुसलमान टीका लगवाने को तैयार नहीं था, लेकिन रहमतउल्लाह ने टीका लगवाने का फैसला किया। पूरे इलाके के लोगों और परिवार में शोक फैल गया। आखिर टीका लगा और रहमतउल्लाह जीवित रहे, जिसके बाद सभी में टीका लगवाने की होड़ लग गई।

अकबर, यानी लेखक के अब्बाजी, को बचपन में बड़े लाड़-प्यार से पाला गाय। सात साल की उम्र से ही वह हर सुबह सोने के वर्क, समुद्रतल पर पाया जाने वाला खूशबूदार पदार्थ, केवड़े के फूल का अर्क को सिरके, नींबू के रस और गुलाब जल के साथ पीते थे। अपनी अंग्रेजी पढ़ाई के साथ वह तेलिनीपारा में अंग्रेजी जानने वाले पहले हिंदुस्तानी भी बन गए। ब्रितानी मिलों के कुछ अंग्रेज अफसरों से उनकी दोस्ती हो गई और प्रगतिशील मिजाज की एक नई पीढ़ी उनके इर्द-गिर्द जमा होती गई, जिनमें हिंदू और मुसलमान दोनों थे। 1931 में पहली बोलती भारतीय फिल्म 'आलमआरा' रिलीज हुई, तो अंग्रेज दोस्तों ने उन्हें कलकत्ता के मैट्रो थिएटर में आमंत्रित किया। यह खास मौका था, जिसके लिए खास तैयारियां की गई। लेखक के पिताजी लिनेन का सूट, फेवर लियूबा की चमचमाती सफेद घड़ी और चाइना टाउन के फरमाइशी जूतों से सजे-धजे अपनी शोफर वाली राज कैडिलेक कार पर सवार होकर फिल्म देखने गए। वहां अंग्रेज दोस्तों के साथ सिगरेट के कश लगाए, लेमोनेड की चुस्कियां लीं और गाते हुए थिएटर से बाहर निकले।

लेखक ने अपने पिताजी की शादी और पहली रात का भी बिंदास अंदाज में जिक्र किया है। वह किसी गोरी लड़की से शादी करना चाहते थे। रहतमउल्लाह के दोस्त बुखारी ने अमृतसर के एक धनी कालीन व्यापारी की सबसे छोटी बेटी इम्तियाज से रिश्ता जुड़वा दिया। लेकिन पहली रात जब अकबर ने दुल्हन का चेहरा ऊपर उठाया, तो वह चीख पड़ी। लेखक लिखते हैं, 'मेरी मां ने पिताजी को सच्चाई कभी नहीं बताई। उसने उससे पहले कभी इतना काला आदमी नहीं देखा था।'

सिर्फ रिश्ते ही नहीं, इतिहास की पर्तो को भी लेखक हर पन्ने पर उघाड़ते चलते हैं। बात 1947 की। अंग्रेज भारत छोड़कर जाने का ऐलान कर चुके थे। जिन्ना बंटवारे की जिद पर कायम थे। आखिर बंटवारा हुआ और कलकत्ता में सांप्रदायिक वैमनस्य की खूनी लड़ाई शुरू हो गई। हालात का फायदा उठाने के लिए लुटेरे भी सक्रिय हो चुके थे। ट्रेन की बोगियां लूटने वाले राम चटर्जी की नजरें तेलिनीपारा के सबसे समृद्ध मुस्लिम परिवार पर थीं और आखिरकार वह सफल रहा। रहमतउल्लाह के परिवार को जान बचाने के लिए भागना पड़ा। ढाका में शरण ली। बाद में लेखक की मां लाहौर चली गई, जमीन से उखड़े वृक्ष की तरह रहमतउल्लाह बेजान-से हो गए और अकबर ने उनके सहित परिवार को वापस तेलिनीपारा में लाने का बीड़ा उठा लिया।

लेखक, यानी एमजे अकबर ने बहुत बाद में अपने पिताजी से एक दिन पूछा कि 1948 में वह पाकिस्तान से लौट क्यों आए, तो उनका जवाब था, 'पाकिस्तान में मुसलमान बहुत थे।' सुनने में यह बात कुछ अजीब लगती है, लेकिन भारत-पाक बंटवारे के आइने में देखें, तो इस जवाब में लेखक ने जैसे पूरी सदी के भारतीय मुसलमानों की नियति का दर्द घोल दिया है।

इसके बाद की कहानी मोबाशर, यानी पुस्तक के लेखक एम जे अकबर, के साथ आगे बढ़ती है। कॉन्वेंट की स्कूली शिक्षा के बाद कलकत्ता में अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल में उनकी पढ़ाई ने उन्हें अलग किस्म का इंसान बना दिया, जो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता था और तेलिनीपारा की मिलों के गोरे अफसर मित्रता से जिसे अपने गले लगाते थे। लेकिन एक परिवार के महासंघर्ष और इंसानियत कायम करने की लंबी जद्दोजहद के समानांतर सांप्रदायिकता की विषधारा भी बहे जा रही थी। किशोरवय के मोबाशर की आंखें पहली बार बिकनी पहनकर फोटो खिंचवाने वाली भारतीय हीरोइन शर्मिला टैगोर की गहरी आंखों में डूबने के सपने देख रही थीं, लेकिन उधर तेलिनीपारा में सांप्रदायिक वहशी किसी दूसरी ही तैयारी में लगे थे। खून के रिश्तों और रिश्तों के खून की इस महागाथा का अंत लेखक ने अपने ऊपर हुए जानलेवा हमले के जिस अंजाम के साथ किया है, शायद उसी में नए भारत में हिंदू-मुस्लिम रिश्तों का संदेश भी छुपा है। पुस्तक में आपको इस सवाल का जवाब भी मिल जाएगा कि एम जे अकबर ने पत्रकारिता का रास्ता क्यों चुना?

[किताब:] खून का रिश्ता/ एम.जे. अकबर/ हिन्द पॉकेट बुक्स प्राइवेट लिमिटेड, 40, जोरबाग लेन, नई दिल्ली-3/ 250 रु.




6 comments:

  1. Oh..Pakistan to hame angrezon se milee bad dua hai..warna wahan ke log aur yahanke log inme farq kya hai? Gar ham insaan hain,to wo bhee..

    http://shamasansmaran.blogspot.com

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  2. ज़िंदा रहने की जरूरत प्राथमिक है...
    बाकी सारी फ़ंफ़ूदें भरे हुए पेटों की है...धर्म..पहचान..

    शुक्रिया..
    शुभकामनाएं...

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  3. मुझे आपके इस सुन्‍दर से ब्‍लाग को देखने का अवसर मिला, नाम के अनुरूप बहुत ही खूबसूरती के साथ आपने इन्‍हें प्रस्‍तुत किया आभार् !!

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  4. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

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