Tuesday, July 14, 2009

लुंगी भी जाएगी !

पोस्ट के विषय:

وسعت اللہ خانوسعت اللہ خان | 2009-05-11, 12:02

वुसतउल्लाह ख़ान से

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जैसे ही मैं हावड़ा जंक्शन की भीड़ चीरता हुआ बाहर निकला, एक सफ़ेद बालों वाला पीली टैक्सी समेत टकरा गया.

"हो आए साहब आप शांति निकेतन से?", मैं एकदम ख़ुद से एक अजनबी की इतनी बेतकल्लुफ़ी पर ठिठक गया.

लेकिन फिर उसी बेतकल्लुफ़ी पर रीझ गया. उसने मुझे सोचने का मौक़ा दिए बग़ैर कहा, वैसे तो आप किसी की भी टैक्सी में जा सकते हैं, पर यहाँ सारे खु्श्के हैं.

बात करते हैं तो मानो फावड़ा चला रहे हैं. आप हमारे साथ रहिए, आपको अच्छा लगेगा.

मैंने कहा, ठीक है, अगले आठ घंटों तक आप हमारे साथ रहेंगे. मगर लेंगे क्या, कहने लगा छह सौ नब्बे रुपए, क्योंकि सात सौ कहने से कस्टमर उछल जाता है.

मैंने पूछा, नाम क्या है, कहने लगा पवन कुमार यादव. बाइस साल पहले छपरा से आए थे, तबसे टैक्सी लाइन में हैं.

मैं अगला दरवाज़ा खोल कर पवन कुमार के बगल में बैठ गया. सफ़र के दौरान उससे पूछा, वोट किसे दिया?

कहने लगा पिछली बार डाकू को और अबकी बार चोर को...पिछले ने छह रुपए किलो चावल को 20 रुपए किलो तक पहुँचा दिया, इस बार लगता है, हमारी लुंगी भी जाएगी. कल किसी हराम... ने मोबाइल भी छीन लिया.

मैंने कहा, पवन कुमार पिछले एक महीने से मैं दिल्ली से बंगलौर और बंगलौर से कोलकाता तक सफ़र कर रहा हूँ. जनता तुम्हारी तरह नेताओं को सौ-सौ गालियाँ भी देती है पर वोट की लाइन में भी लगती है, यह क्या है.

"जनता को भी तो मज़ा लगा हुआ है. उसे अपने जैसा मूर्ख नहीं, डेढ़ अक्षर पढ़ा आदमी चाहिए जो एकदम मस्त भासन दे, भले रासन न दे. थके हारों को नौटंकी चाहिए, साहब, नौटंकी. जिसे आप जैसे विद्वान लोकतंत्र कहते हो."

मैंने कहा, पवन कुमार तुम्हें तो लोकसभा या विधान सभा में होना चाहिए. पवन कुमार यादव ज़ोर से हँसा, अगर हम विधायक बन गए तो टैक्सी कौन चलाएगा. नेता लोग तो टैक्सी तक नहीं चला सकते

वरुण को पड़े जम कर फटकार

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वरुण गांधी पर राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाया जाना कितना न्यायोचित है? उनके ख़िलाफ़ चार केस दर्ज होने चाहिए या सिर्फ़ एक? चुनाव आयोग का भाजपा को यह राय देना कि वह वरुण गांधी को अपना उम्मीदवार न बनाए, सही है या ग़लत?

भाजपा, बसपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी सभी इस मसले को कैसे भुना रही हैं और किसे कितना राजनीतिक नुक़सान या लाभ मिलने की संभावना है? क्या उत्तर प्रदेश में वरुण गांधी की वजह से राजनीतिक समीकरण बदले हैं? क्या भाजपा के वोट इस प्रकरण से बढ़ रहे हैं या उसे नुक़सान हो रहा है?

राजनीतिक पंडित और विशेषज्ञ सभी इस तरह के मुद्दों की गहन समीक्षा कर रहे हैं. मेरी नज़र में यह पूरी बहस और ये सभी मुद्दे बेमानी हैं.

मेरी समझ में असली मुद्दा कुछ और है और उसके परिणाम को 2009 या आगे के चुनावों या राजनीतिक समीकरणों में बांध कर नहीं देखा जा सकता.

मैं अभी तक स्तब्ध हूँ कि वरुण गांधी जैसा युवा इस तरह की भाषा बोल सकता है और इस तरह की सोच रख सकता है.

ऐसा वर्ग जिसके पास सब कुछ है

वरुण गांधी जैसा युवा मैंने सिर्फ़ इसलिए नहीं कहा कि उनके नाम के साथ गांधी और परिवार का इतिहास जुड़ा हुआ है. वह तो एक कारण है ही. मैं हैरान, हताश और दुखी इसलिए हूँ कि वरुण समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके पास सब कुछ है.

राहुल और प्रियंका गांधी की तुलना में वरुण अपनी स्थिति पर कितना भी तरस खाएं और सिर्फ़ इस मुद्दे पर वरुण के साथ हमदर्दी रखने वालों की अच्छी संख्या हो सकती है. पर भाग्य और नियति के उस फ़ैसले का ऐसा जवाब तो वरुण को नहीं देना चाहिए था. भला यह भी कोई तरीक़ा है अपने राजनीतिक भविष्य को संवारने का?

वरुण के बयानों से देश के भविष्य को लेकर मन में डर पैदा होता है. जिस लड़के को इतनी अच्छी शिक्षा मिली हो, हर तरह से संपन्न हो, सुशिक्षित हो, सुसंस्कृत हो, जिसने दुनिया देखी हो और युवा हो.....वह हाथ से हाथ मिलाकर देश जोड़ने की नहीं, हाथ काटने की बात करे और सोचे...? क्या यही हमारा और हमारे देश का भविष्य है?

पहले मैंने सोचा छोटा है, आवेश में बोल गया होगा. मुँह से कभी-कभी ऊल-जलूल निकल ही जाता है. पर भूल स्वीकारने की जगह और ईमानदार क्षमा-याचना करने की बजाय वरुण तो इस मुद्दे को अच्छी तरह से भुनाने और आगे निकल पड़े....यह अति निंदनीय है....डाँट पड़नी चाहिए जमकर वरुण को.....पर डांटे कौन?

माँ भी वहाँ पहुँचीं और सही सलाह देने के स्थान पर सारी ग़लती और हिंसा का ठीकरा एक मुसलमान पुलिसवाले के सर पर फोड़ डाला. फिर बात भी वही है......हो सकता है कि वह अधिकारी हो ही ग़लत, पर क्या मेनका गांधी को यह बयान शोभा देता है?

भाजपा की स्थिति तो और भी अजीबोग़रीब है. उन्हें, या यूँ कहिए कि पार्टी के एक वर्ग को यह समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह वरुण गांधी से अपना पल्ला झाड़े और उसको और हीरो बनने से रोके या फिर हिंदुत्व का नया नौजवान झंडाबरदार बनने के लिए उसकी पीठ थपथपाए.

भाजपा के एक तबके में वरुण गांधी से भारी ईष्या भी है. कल एक वरिष्ठ भाजपा सांसद ने मुझे बताया कि भाजपा नेतृत्व का वह वर्ग जो स्वयं को पार्टी में हिंदुत्व का ठेकेदार या 'आर्चबिशप' समझता है, वह वरुण के अचानक इस कदर सुर्खियों में आने की वजह से बहुत हैरान परेशान है.

उनका कहना है कि उन्होंने कितने आंदोलन करवाए, हिंदुत्व के लिए सड़क पर उतरे, कभी दंगे हुए तो कभी मस्जिद गिरी...अर्थ यह कि इतने पापड़ बेले, हिंदुत्व के लिए इतनी तपस्या की, तब जाकर नाम कमाया और नेतृत्व मिला. उस पर यह वरुण गांधी - 'कल का छोकरा, सार्वजनिक जीवन में नौसिखिया, महज़ एक भाषण के बाद ही हिंदुत्व और पार्टी का पोस्टर ब्वाय होता जा रहा है.'

आप कह सकते हैं कि भाई, वरुण बेचारे ने ऐसा क्या कर दिया कि आप अपना प्रवचन बंद ही नहीं कर रहे हैं? ऐसे दर्जनों नेता हैं, वरुण से कहीं बड़े शक्तिशाली, जो कहीं इनसे ज़्यादा ख़तरनाक और निंदनीय बातें न सिर्फ़ कह जाते हैं बल्कि कर डालते हैं.

आपका कहना बिल्कुल सही है. वरुण पर इतना कुछ मैं सिर्फ़ इसलिए लिख रहा हूँ कि उनके जैसे युवा से, वह भी पढ़े-लिखे युवा से, जिसके पास किसी चीज़ की शायद कमी नहीं है, बेहतर बर्ताव और सोच की उम्मीद है. और जब वरुण जैसे नवयुवक ग़लत रास्ता पकड़ते हैं तो देश और अपने बच्चों के भविष्य के बारे में सोच कर डर लगता है.

चलते-चलते एक बात और....पिछले कुछ दिनों में बहुत से लोगों ने वरुण के किस्से में संजय गांधी को भी याद किया है और अलग-अलग तरह की बातें कही हैं, लिखी हैं. पता नहीं संजय होते तो क्या कहते? या क्या सोचते?

पर मुझे संजय गांधी के ख़ास समझे जाने वाले विद्याचरण शुक्ल की बात सुनकर बहुत अच्छा लगा. उन्होंने एक टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा - 'अगर आज संजय गांधी होते तो वरुण का कान पकड़ कर उसकी अक्ल ठिकाने लगा देते.'

समलैंगिकों, तुम्हें सलाम

समलैंगिकों, तुम्हें सलाम !

सुहैल हलीमसुहैल हलीम | 2009-07-13, 12:15

समलैंगिकता सही है या ग़लत, प्राकृतिक है या अप्राकृतिक, क़ानून के दायरे में है या बाहर,

इन सब सवालों पर तो दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले के बाद न जाने कबतक बहस जारी रहेगी.

लेकिन मैं एक बात विश्वास के साथ कह सकता हूं और वो ये है कि समलैंगिकता से प्यार और एकता बढ़ती है.

क्या समलैंगिकों में भी, ये तो मुझे नहीं मालूम, लेकिन उन लोगों में अवश्य जो कमर कस कर इसके विरूद्ध आ खड़े हुए हैं.

इसकी एक मिसाल बृहस्पतिवार को दिल्ली प्रेस क्लब में नज़र आई जब समलैंगिकों के ख़िलाफ़ एक दूसरे के सुर से सुर मिलाने के लिए हिंदू, मुस्लिम, सिख ईसाई और जैन धर्मों के नेता एक ही मंच पर जमा हुए.

दुनिया में बड़े बड़े समुद्री तूफ़ान आए, सूनामी में लाखों लोग मारे गए, कितने ही बच्चे आज भी कभी दवा के बगैर तो कभी रोटी के बगैर दम तोड़ रहे हैं, कितनी औरतों की इज्ज़त हर घड़ी नीलाम हो रही है...लेकिन क्या आपको याद है कि हमारे धार्मिक नेता पिछली बार कब एक साथ इस तरह से एक मंच पर आए थे?

यह काम हमारे उन भाई-बहनों ने एक ही झटके में कर दिखाया, यौन संबंधों में जिनकी पसंद हम से ज़रा अलग है.

समलैंगिकों, तुम्हें सलाम !