Monday, August 3, 2009

सड़क पर बैठी गूंगी बेटी है सेनानी की

सड़क पर बैठी गूंगी बेटी है सेनानी की

Aug 03, 12:26 pm

मुजफ्फरपुर [जाटी]। मुजफ्फरपुर के शुक्ला रोड में शिव मंदिर के पास आपको सड़क पर एक लड़की फटेहाल स्थिति में गुमशुम बैठी मिल जाएगी। वह आने-जाने वाले हर राहगीर को टकटकी लगाकर देखती है। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया, वरना, भूखे पेट सो जाती है।

पता चला कि वह भारत छोड़ो आंदोलन के सिपाही रामप्रकाश शुक्ल की बेटी बाबी है। बाबी स्वतंत्र भारत में स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के हालातों की कहानी बयां करती जिंदा तस्वीर है। राम प्रकाश शुक्ल ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।

एक वर्ष पूर्व 85 वर्ष की उम्र में वे अपनी बेटी को सड़क पर छोड़कर चल बसे। बेटा था, लेकिन उनसे पहले ही स्वर्ग सिधार गया। श्री शुक्ल जब तक जीवित रहे, बाबी की देखभाल करते रहे। उनके मरने के बाद बेटी को कोई पूछने वाला नहीं है। यह तो बानगी है। उत्तर बिहार के हर जिले में ऐसे कई सेनानी परिवार हैं, जो 'रहम बांटने वाली नजरों' से ओझल फटेहाल जीवन जी रहे हैं।

1942 के आंदोलन में जेल की सजा काट चुके मुजफ्फरपुर के सेनानी रघुनाथ चौधरी सात साल पूर्व स्वर्ग सिधारे। पत्नी भी तीन साल पूर्व पंचतत्व में विलीन हो चुकी हैं। पेंशन बंद हो चुकी है। इकलौते पुत्र के लिए वे ताम्रपत्र और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ी स्मृतियों के अलावा कुछ भी नहीं छोड़ पाए।

हालत यह है पुत्र रोजी-रोटी के लिए दर-दर भटक रहा है। सिकंदरपुर निवासी मधुसूदन झा के दादा पं. विशेश्वर झा, पिता पं. तेज नारायण झा व माता रामकला देवी स्वतंत्रता सेनानी रह चुके हैं। मधुसूदन की हालत यह है कि दिनभर इधर-उधर भटक कर किसी तरह जीवन बिता रहे हैं।

नब्बे वसंत देख चुकेसेनानी बिंदेश्वर चौधरी भी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 1930 में मुजफ्फरपुर केंद्रीय कारा में छह माह तक सजा काट चुके हैं। चौधरी के दो पुत्र व एक पुत्री हैं। सभी की शादी हो चुकी है। पुत्रों को नौकरी नहीं मिली तो किसी तरह व्यापार कर परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं।

नौ अगस्त 1942 को शहीद हुए गणेश राव के परिजन आज बेतिया के पुरानी गुदरी में मजदूरी कर भरण-पोषण कर रहे हैं। शहीद के पुत्र ललन राव गुजर चुके हैं। वर्तमान में शहीद के पोता शंभु प्रसाद राव, प्यारेलाल राव और प्यारेलाल अलग-अलग होते हुए भी 10 धूर के खपरैल मकान में येन-केन प्रकारेण दिन गुजार रहे हैं। प्यारेलाल की अभी शादी नहीं हुई है।

पूर्वी चंपारण के ढाका के पचपकड़ी टोला रूपौलिया निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्व. श्याम सुंदर ठाकुर के पुत्र संजय कुमार ठाकुर बताते हैं कि अब तक उनके परिवार को फ्रीडम फाइटर फैमिली के रूप में भी घोषित नहीं किया गया, अन्य सुविधाओं की तो बात छोड़िए। वहीं चिरैया थाना क्षेत्र के सिरौना निवासी स्वतंत्रता सेनानी स्व.रामबिहारी शर्मा के पुत्र कुमार रंजन शर्मा भी कुछ ऐसा ही विचार रखते हैं।

वे कहते हैं-सरकार सिर्फ पेंशन देकर देशभक्ति व बलिदान को भूल गई। स्व. ठाकुर उन सेनानियों में थे, जिन्होंने 1942 में गांधी जी के करो या मरो के एक नारे पर ढाका थाना पर तिरंगा फहरा कर अंग्रेजों को खुली चुनौती दे दी थी। उन्होंने छह फरवरी 1945 को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की चंपारण यात्रा के दौरान उनकी सुरक्षा की बागडोर भी संभाली थी।

कभी सवा दो सौ सेनानियों की भूमि रहे सीतामढ़ी में अब महज गिने-चुने सेनानी रह गये हैं। राजकिशोर शर्मा समेत 30 से ज्यादा सेनानी उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं। वे जीवित तो हैं पर मान-सम्मान न मिलने से क्षुब्ध हैं। आजादी की लड़ाई में फांसी पाने वाले अमर शहीद रामफल मंडल के परिजनों की सुध भी हुक्मरानों को नहीं है। पिछले वर्ष 23 जुलाई को बाजपट्टी में शहीद की प्रतिमा का मुख्यमंत्री ने अनावरण तो किया, लेकिन हालात यह है कि सरकारी व प्रशासनिक नजर से ओझल शहीद रामफल मंडल के परिजन गुमनामी की ही जिन्दगी जी रहे हैं। झोपड़ीनुमा आवास में उनके परिजन किसी तरह गुजर-बसर कर रहे हैं।

आजादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभाने वाले वारिसनगर [समस्तीपुर] के स्वतंत्रता सेनानी रहे हरिहर अमात के पौत्र मनोज कुमार राय हाईस्कूल गेट पर पान की दुकान चलाकर गुजर बसर कर रहे हैं। हालांकि, उनके पिता हाई स्कूल में चतुर्थवर्गीय कर्मचारी हैं।

1942 में पंजाब के मुक्तसर चौराहा पर किशोरावस्था में तिरंगा फहराने वाले स्व. मोहनलाल दीवान की पत्नी सावित्री दीवान अपने तीन पुत्रों के छोटे व्यवसाय से होने वाली आय से संतुष्ट हैं। हरपुर के स्व. राम प्रसाद साहू एवं पंचरूखी के यदुनंदन शर्मा के परिजन भी बदहाली से जूझ रहे हैं।

दरभंगा में दिवंगत सेनानी दुखहरण सिंह के पुत्र अरुण ने बताया कि जब तक उनके पिताजी जीवित थे, उन्हें पेंशन मिली। उनके गुजरते बंद। सेनानी स्व. पं. रामनन्दन मिश्र के पौत्र गोविन्द बताते हैं कि दादा ने जीवनकाल में ही पेंशन लेने से इनकार कर दिया था। उनके मरणोपरांत सरकार से कुछ भी नही मिला। अरुण आज भी अपने परिवार को संभालने के लिए कुछ करने की ही सोच रहे हैं, जबकि गोविन्द एक छोटी सी दुकान के मालिक हैं।

[मुजफ्फरपुर से प्रमोद, बेतिया से विजय, मोतिहारी से अमन, सीतामढ़ी से नीरज, समस्तीपुर से अवनि मिश्र, वारिसनगर से दिलीप, पूसा से पूर्णेन्दु व दरभंगा से निशिकांत की रपटों पर आधारित]





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